कहाँ नालंदा तक्षशिला और कहां आज की बीमार शिक्षा
- आज देश में उच्च शिक्षा की स्थिति एक बीमार बालक जैसी है ,तो इस बालक के इलाज में और देर नहीं की जानी चाहिए वास्तव में शिक्षा को लेकर लम्बे समय से चली आ रही दिशाहीनता के कारण यही नौबत आई है,कहने को उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे छात्रों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई है किन्तु गुणवत्ता ,फीस ढांचे ,शिक्षकों के खाली पड़े पद पुराने पड़ चुके पाठ्यक्रम परीक्षा प्रणाली आदि ऐसे मुद्दे हैं ,जिनमें तुरंत परिवर्तन की दरकार है,अर्जुन सिंह ने कुलपतियों के सम्मेलन में इन समस्याओं का जिक्र कर विद्वानों से शीघ्र समाधान की अपेक्षा की थी,संप्रग सरकार ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शिक्षा का चेहरा बदल देने का भरोसा दिया था,इसी कारण 11वीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा पर व्यय सकल घरेलू उत्पाद का पांच प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा गया है,इस लक्ष्य को पाने के लिए एक लम्बा सफर तय करना होगा,तेज विकास दर की रफ़्तार को बनाए रखने तथा युवा पीढ़ी की महत्वकांक्षा पर खरा उतरने के लिए भी उच्च शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है,निजीकरण का रास्ता खोलने भर से इनका समाधान संभव नहीं है,निजी शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता पर कड़ी नजर रखना जरूरी है,अभी तो स्थिति विकट है, देश के 75 प्रतिशत कालेजों और 56 प्रतिशत विश्वविद्यालयों का मूल्यांकन नेशनल एसेसमेंट एंड एक्रीडेशन काउंसिल ( एनएएसी ) से हुआ ही नहीं है.

उच्च शिक्षा के नाम पर देश भर में ऐसी दुकान खुल गई हैं ,जिन पर शायद ही किसी का नियंत्रण है,राजनेताओं और प्रभावशाली लोगों का वरदहस्त होने के कारण शिक्षा के नाम पर ठगी करने वाले लोगों के खिलाफ कार्रवाई करना आसान नहीं है,ऐसी रूग्ण शिक्षा व्यवस्था की मार समाज के कमजोर तबके पर सर्वाधिक पड़ रही है,महिलाओं ,ग्रामीणों , पिछड़े इलाकों में रहने वालों तथा अनुसचित जाति व जनजाति के लोगों के लिए गुणात्मक उच्च शिक्षा तक पहुंच बनाना एक सपने जैसा है,ज्ञान आयोग का गठन मौजूदा सरकार का सकारात्मक कदम है,अब उच्च शिक्षा का रोडमैप तैयार कर उस पर ईमानदारी से अमल करना चाहिए,दुनिया के बड़े नहीं ,छोटे देशों पर नजर डालने से पता चल जाता है कि हम कितना पिछड़ चुके है,आज यहाँ गुलाम व गरीब पैदा करने वाली शिक्षा है,अगर यह पूछा जाए कि शिक्षा ने क्या दिया तो उत्तर बहुत सरल होगा और अनपढ़ व्यक्ति भी कह देगा कि शिक्षा ने स्कूल दिए , अध्यपाक दिए , कॉलेज दिए , विश्वविद्यालय दिए,प्रमाणपत्र और डिग्रियां दीं, इसी तरह धर्म के बारे में सवाल करने पर कहा जाएगा धर्म ने मंदिर ,मस्जिद ,गिरजाघर, गुरूद्वारे दिए ,काबा – कर्बला और तीर्थ दिए , चबूतरे ,मजार , मकबरे दिए और कुछ तरह -तरह के रंग के झंडे दे दिए,अब प्रश्न है कि जब धर्म और शिक्षा दोनों ने हमें अपूर्ण इंसान और अपूर्ण हैवान बना दिया तो हम क्या करे ? अपूर्ण इंसानियत का प्रयोग करें या अपूर्ण हैवानित का ? जो शिक्षा जडताओं से मुक्त न कर सके,वह शिक्षा केवल गुलामों और गरीबों को पैदा करती है,

इसी तरह जो धर्म जड़ता का प्रतिकार नहीं करता वह अधर्म आतंक और अत्याचार पैदा करता है ,धर्म का अर्थ न हिंदू है ,न मुसलमान ,न सिख या ईसाई,इसी तरह शिक्षा का अर्थ न स्कूल है न मदरसा ,न ईसाई मिशन,आज जिस शिक्षा का दुनिया भर के दिमागों पर राज है ,वह हिंसा की शिक्षा है,अगर पिछले सौ साल में इतने हिंसक हथियार न होते , झगड़े न होते तो आतंकवाद पैदा नहीं होता और आतंकवाद न होता तो कोई इंसान हैवान नहीं बनता.
शिक्षा प्राप्त वैज्ञानिक ,राजनेताओं ,सरकारों और पूंजीपतियों ने हिंसा का शिक्षा – शास्त्र रच कर उपनिवेश बनाएं ,गुलाम बनाए ,युद्ध और आतंकवाद लादे और आखिरकार एक ऐसा उन्मादी बाजार खड़ा कर दिया ,जिसमें भू – मण्डल भू – मंडी हो गया और घर – गृहस्थी या खाने – पीने का सामान एक युद्ध की सामग्री की तरह लगने लगा धर्म से भी ऐसा ही हुआ, धर्म से साधु ,संत ,पीर ,फकीर , औलिया ,पादरी तो पैदा हो गए , मगर धर्म की इंसानियत पर किसी मानवतावादी लोगों की बजाय धर्म के ठेकेदारों का कब्जा हो गया,धर्म टीवी चैनलों पर प्रवचन बन गया और तरह – तरह के धर्मगुरूओं ,साधुओं,महामण्डलेश्वरों ,बापुओं का विज्ञापन हो गया.
धर्म को दूरदर्शन के चैनलों ने फीचर फिल्म बना दिया और तमाम धर्मगुरू ,कथावाचक , प्रवचनकार इन फिल्मों के नए हीरो हीरोइन बन गए,अब धर्म उनके द्वारा बेची किताबों में पढ़ें , उनके आडियो- वीडियों कैसेटों से सुनें देखें,और धर्म के बाजार में खड़े होकर कथित धर्म शास्त्रों को विज्ञापनों के जरिए बेचें,धर्म के इस संस्करण ने धर्म के अर्थ ही बदल दिए और धर्म की परिभाषा जब तक मंदिर – मस्जिद थी ,तब तक भी गनीमत थी ,अब तो धर्म का अर्थ गाय है ,जो दिन भर मल और गंदगी खा -खाकर मर रही है अब धर्म का अर्थ किसी मूर्ति की आंख- नाक निकाल लेना है या कोई सूअर मस्जिद के अहाते में अधमरा पटक देना है,धर्म आज दंगों का जनक है,इसलिए धर्म न प्रेम का प्रतीक है ,न शांति का ,न अहिंसा का,धर्म तो अब एक फैशन है जो प्रवचन के समय चेहरों और कपड़ों की नुमाइश करता है और जिस पर बुद्धिजीवी इस तरह चर्चा करते हैं जैसे धर्मनिरपेक्षता के महागुरू वहीं हो हजारों साल की समझदार जनता को राजनीति की कोख से पैदा हुए बुद्धिजीवी धर्म समझा रहे हैं , धर्मनिरपेक्षता समझा रहे हैं . भाईचारा समझा रहे हैं,नकली शिक्षा और नकली धर्म ने सब – कछ नकली कर दिया,आत्मा और परमात्मा तो किसी ने देखे नहीं और न किसी वैज्ञानिक ने आज तक जीव विज्ञान या मानव विज्ञान से आत्मा और परमात्मा की काई शक्ल साबित की ,फिर भी दुनिया का हर धर्म आत्मा और परमात्मा पर माथा पटक – पटक कर लहू -लुहान हुआ जा रहा है, दुनिया भर में भगवानों का एक महाअभ्यारण्य हो गया है.
शिक्षा और धर्म दो अलग बातें नहीं हैं,दोनों अच्छे इंसान बनाने के तरीके हैं,शिक्षा अगर भौतिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है तो धर्म नैतिक आचरण निर्धारित करता है ,शिक्षा जीवन भर सीखते रहने का प्रयास है ,शिक्षा जीवन भर सही जीवन जीने का तरीका है,भारत जैसे देश में धर्म और धर्मनिरपेक्षता के सवाल और बवाल दोनों पैदा इसलिए हो गए कि यह देश धर्म के नाम पर बंटा और बंटवारे के बाद तरह -तरह से बंटता ही चला गया,शिक्षा में बंटा ,राजनीति में बंटा ,धर्म में बंटा ,क्षेत्रवाद में बंटा और अब तरह- तरह के आतंकवाद , नक्सलवाद ,हिंसा और अपराध में बंट रहा है,अब कोई ऐसा नेतृत्व नहीं है हमारे पास जो इस तरह से बंटते -कटते देश को एक रख सके,शिक्षा है तो जरूर ,लेकिन शिक्षा से अर्जित ज्ञान भी आज पराजित है उसे भू -मंडी बना दिया गया है,इस तरह न शिक्षा कोई विराट चरित्र दे रही है और न धर्म कोई संस्कार, न शिक्षा से आचरण का कोई धर्म मिला और न धर्म से उदारता ,सहिष्णुता , प्यार ,मोहब्बत और एकता की शिक्षा,ऐसे में किधर जाए देश किधर जाएं लोग और किधर जाए यह लोकतंत्र.

आज तमाम सरकारी कोशिसों के बाद करोड़ों बच्चे नाम लिखना और अक्षर पहचानना तो सीख गए ,लेकिन असल चुनौती तो उनकी आगे की पढ़ाई की है,बात प्राइमरी और प्राइमरी से निकलर माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक पर आ गई है ,सवाल है कि क्या लगभग साढ़े तीन करोड़ बच्चे बाबू बनने लायक पढ़ाई भी नहीं कर पाएँगे ? उन्हें माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक में दाखिला दिलाने की यह विस्फोटक चुनौती सरकार के सामने है ,लेकिन मंजिल आसपास भी नहीं है,सिर्फ सर्वशिक्षा अभियान की सफलता के चलते अगले तीन वर्षों में लगभग तीन करोड़ बच्चों को कक्षा नौ और दस में दाखिला दिलाने का दबाव सरकार पर है इससे इतर लगभग 63 लाख बच्चे तो सामान्य तौर पर लाइन में हैं ही,यह स्थिति भी तब तक है , जब पंचवर्षीय योजना में यह मानकर तैयारी की गई है कि 14 से 18 आयु वर्ग में से सिर्फ 75 प्रतिशत बच्चे ही माध्यमिक की राह पकड़ेंगे—
यही है बहुजनों को अनपढ़ रखने की साजिश-
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